संस्कृत भास्वती कक्षा - 12 द्वितीय: पाठ: - मातुराज्ञा गरीयसी प्रश्नोत्तर Class -12th Sanskrit Bhaswati - Lesson - 2 Maturagya gariyashi Question Answer

कक्षा - 12 संस्कृत भास्वती -  द्वितीय: पाठ: - मातुराज्ञा गरीयसी  Class -12 Sanskrit Bhaswati -  Lesson - 2 Maturagya gariyashi

NCERT Solutions for Class 12 Sanskrit Bhaswati  संस्कृत भास्वती कक्षा - 12 द्वितीय: पाठ: - मातुराज्ञा गरीयसी प्रश्नोत्तर   Class -12 Sanskrit Bhaswati -  Lesson - 2 Maturagya gariyashi Question Answer 
द्वितीय: पाठ: - मातुराज्ञा गरीयसी प्रश्नोत्तर   -  Lesson - 2 aturagya gariyashi Question Answer 

संस्कृत भास्वती   कक्षा - 12 (Class -12 Sanskrit Bhaswati) द्वितीय: पाठ:  मातुराज्ञा गरीयसी ( माता की आज्ञा श्रेष्ठ है)

संस्कृत भास्वती कक्षा - 12  द्वितीय: पाठ: - मातुराज्ञा गरीयसी प्रश्नोत्तर Class -12 Sanskrit Bhaswati -  Lesson - 2 Maturagya gariyashi Question Answer
 Class -12th Sanskrit Bhaswati -  Lesson - 2


द्वितीय: पाठ:  मातुराज्ञा गरीयसी ( माता की आज्ञा श्रेष्ठ है) 

पाठ्यपुस्तक के अभ्यास प्रश्नोत्तर

1. एकपदेन उत्तरत-

(क) एकशरीरसंक्षिप्ता का रक्षितव्या ?

उत्तरम् - पृथिवी ।

(ख) शरीरे कः प्रहरति ?

उत्तरम् - अरिः ।

(ग) स्वजनः कुत्र प्रहरति ?

उत्तरम् - हृदये।

(घ) कैकेय्याः भर्ता केन समः आसीत् ?

उत्तरम् - शक्रेण ।

(ङ) कः मातुः परिवादं श्रोतुं न इच्छति ?

उत्तरम् - रामः ।

(च) केन लोकं युवतिरहितं कर्तुं निश्चयः कृतः ?

उत्तरम् - लक्ष्मणेन।

(छ) प्रतिमानाटकस्य रचयिता कः ?

उत्तरम् - महाकविः भासः । 

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

(क) रामस्य अभिषेकः कथं निवृत्तः ? 

उत्तरम् - रामस्य अभिषेकः कैकेय्याः वचनात् निवृत्तः ।

(ख) दशरथस्य मोहं श्रुत्वा लक्ष्मणेन रोषेण किम् उक्तम् ? 

उत्तरम् - दशरथस्य मोहं श्रुत्वा लक्ष्मणेन रोषेण उक्तम्— 

यदि न सहसे राज्ञो मोहं धनुः स्पृश मा दयां 

स्वजननिभृतः सर्वोप्येवं मृदुः परिभूयते । 

अथ न रुचितं मुञ्च त्वं मामहं कृतनिश्चयो 

युवतिरहितं लोकं कर्तुं यतश्छलिता वयम् ।

(ग) लक्ष्मणेन किं कर्तुं निश्चयः कृतः ?

उत्तरम् - लक्ष्मणेन लोकं युवतिरहितं कर्तुं निश्चयः कृतः ।

(घ) रामेण त्रीणि पातकानि कानि उक्तानि ?

उत्तरम् -  'ताते धनुः ग्राह्यं, मातरि शरं मुञ्चनम्, दोषेषु बाह्यम् अनुजं भरतं हननम्' इति रामेण त्रीणि पातकानि उक्तानि ।

(ङ) रामः लक्ष्मणस्य रोषं कथं प्रतिपादयति ?

उत्तरम् -  "त्रैलोक्यं दग्धुकामेव ललाटपुटसंस्थिता ।

               भृकुटिर्लक्ष्मणस्यैषा नियतीव व्यवस्थिता ।।" 

-इति शब्दः रामः लक्ष्मणस्य रोषं प्रतिपादयति। 

3. रेखाङ्कितानि पदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

(क) मया एकाकिना गन्तव्यम् ।

उत्तरम् -  केन एकाकिना गन्तव्यम् ?

(ख) दोषेषु बाह्यम् अनुजं भरतं हनानि ।

उत्तरम् -  केषु बाह्यम् अनुजं भरतं हनानि ?

(ग) राज्ञा हस्तेन एव विसर्जितः ।

उत्तरम् -  केन हस्तेन एव विसर्जितः ?

(घ) पार्थिवस्य वनगमननिवृत्तिः भविष्यति ।

उत्तरम् -  कस्य वनगमननिवृत्तिः भविष्यति ?व

(ङ) शरीरे अरिः प्रहरति ।

उत्तरम् -  कुत्र अरिः प्रहरति ?

4. अधोलिखितेषु संवादेषु कः कं प्रति कथयति इति लिखत-

 

संवादः

कः कथयति?

कः प्रति कथयति?

(क)

एकशरीरसंक्षिप्ता पृथिवी रक्षितव्या ।

..........

..........

(ख)

अलमुपहतासु स्त्रीबुद्धिषु स्वमार्जवमुपनिक्षेप्तुम् ।

..........

..........

(ग)

नवनृपतिविमर्शे नास्ति शङ्का प्रजानाम्।

..........

..........

(घ)

रोदितव्ये काले सौमित्रिणा धनुर्गृहीतम्।

..........

..........

(ङ)

न शक्नोमि रोषं धारयितुम्।

..........

..........

(च)

एनामुद्दिश्य देवतानां प्रणामः क्रियते

..........

..........

(छ)

यत्कृते महति क्लेशे राज्ये मे न मनोरथः।

..........

..........









उत्तरम् - 

 

संवादः

कः कथयति?

कः प्रति कथयति?

(क)

एकशरीरसंक्षिप्ता पृथिवी रक्षितव्या ।

रामः 

काञ्चुकीयम्

(ख)

अलमुपहतासु स्त्रीबुद्धिषु स्वमार्जवमुपनिक्षेप्तुम् ।

काञ्चुकीयः

रामम्

(ग)

नवनृपतिविमर्शे नास्ति शङ्का प्रजानाम्।

रामः

काञ्चुकीयम्

(घ)

रोदितव्ये काले सौमित्रिणा धनुर्गृहीतम्।

सीता

रामम्

(ङ)

न शक्नोमि रोषं धारयितुम्।

लक्ष्मण:

रामम्

(च)

एनामुद्दिश्य देवतानां प्रणामः क्रियते

सीता

रामम्

(छ)

यत्कृते महति क्लेशे राज्ये मे न मनोरथः।

लक्ष्मण:

रामम्

 

5. पाठमाश्रित्य 'रामस्य' 'लक्ष्मणस्य' च चारित्रिक वैशिष्ट्यं हिन्दी / अंग्रेजी / संस्कृत भाषया लिखत् ।

उत्तरम् - 

रामस्य चारित्रिक-वैशिष्ट्यम्

संकलित पाठ के नाट्यांश के अनुसार राम इस नाटक के नायक हैं। राम वस्तुतः श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त हैं, इसी कारण उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। नाट्यांश के आधार पर उनके चरित्र में अग्रलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं— 

(क) मर्मज्ञ - 

        राम मानव-मन के अनन्य ज्ञाता हैं। उन्हें यह बात भली-भाँति ज्ञात है कि किस व्यक्ति को कब कौन-सी बात आहत कर सकती है। उनकी इस विशेषता का ज्ञान हमें उस समय होता है, जब काञ्चुकीय उनसे महाराज की रक्षा करने के लिए कहता है और बताता कि स्वजन से ही महाराज की रक्षा करनी है। तब राम मानव मर्म का यह शाश्वत सत्य उद्घाटित करते हैं कि स्वजनों द्वारा पहुँचाई पीड़ा का प्रतीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि स्वजन सीधे हृदय पर प्रहार करते हैं-

स्वजनादिति। हन्त ! नास्ति प्रतिकारः। 

शरीरेऽरिः प्रहरति हृदये स्वजनस्तथा।

(ख) मातृभक्त पितृभक्त -

        भारतीय संस्कृति के अनुरूप राम मातृ-पितृभक्त श्रेष्ठ पुत्र हैं। वे माता कैकेयी के द्वारा वनवास दिए जाने पर भी उसकी निन्दा सुनना नहीं चाहते और उसके इस कार्य में भी अनेक भलाई देखते है―"किमम्बायाः तेन हि उदर्केण गुणेनात्र भवितव्यम् । अतः परं न मातुः परिवादं श्रोतुम् इच्छामि।” 

     इसी प्रकार वे अपने पिता के सङ्केतमात्र से राज्य त्यागकर वन जाने के लिए उद्यत हो जाते हैं।

(ग) भ्रातृस्नेही - 

        मातृ-पितृभक्त होने के साथ-साथ राम अत्यधिक स्भ्रातृस्नेही भी हैं। यही कारण है कि वे अपना राज्याधिकार भरत को दिए जाने पर भी उसे निर्दोष मानते हैं- "दोषेषु बाह्यम् अनुजं भरतं हनानि।" लक्ष्मण तो उन्हें प्राणों से प्रिय हैं ही, परन्तु वे उन्हें अनुचित बातों के लिए उपालम्भ देने से भी नहीं चूकते। लक्ष्मण द्वारा पृथ्वी को युवतिरहित करने की बात पर वे उन्हें मूढ (अज्ञानी) तक कह देते हैं और उपालम्भ देते हैं कि यदि तुम्हें अपने धनुष पर घमण्ड है तो नए राजा की रक्षा करो- ''आ: पण्डितः खलु भवान् । •••••यदि तेऽस्ति धनुश्श्लाघा स राजा परिपाल्यताम्॥" जब लक्ष्मण अपना क्रोध त्यागने के लिए तत्पर नहीं होते तो वे उनसे कहते हैं कि बताओ तुम्हारे क्रोध को शान्त करने के लिए मैं पिताजी, माता अथवा भाई भरत में से किसके वध का पाप अपने सिर पर लूं-

ताते धनुर्न मयि सत्यमवेक्ष्यमाणे 

मुञ्चानिम मातरि शरं स्वधनं हरन्त्याम्। 

दोषेषु  बाह्यमनुजं भरतं हनानि 

किं रोषणाय रुचिरं त्रिषु पातकेषु ॥

(घ) विनयशील - 

        राम अत्यन्त विनयशील हैं। प्रस्तुत नाट्यांश में पहले काञ्चुकीय राम के क्रोध को भड़काना चाहता है, किन्तु राम उसके भड़कावे में नहीं आते हैं। कैकेयी के प्रति कठोर व्यवहार करने के लिए जब काञ्चुकीय बार-बार अनेक प्रकार के तर्क देता है, तब वे उससे कह देते हैं कि अब मैं और अधिक माता कैकेयी की निन्दा नहीं सुनना चाहता। इसी प्रकार लक्ष्मण राम का राज्याभिषेक रोके जाने और उनके वनवास को लेकर आग-बबूला है तथा राम को भी धनुष उठाने के लिए प्रेरित करते हैं, किन्तु राम अपनी विनयशीलता का परिचय देते हुए न तो स्वयं उत्तेजित होते हैं और न ही लक्ष्मण को कोई अनुचित कदम उठाने देते हैं, वरन् अपने वाक्चातुर्य से लक्ष्मण को भी शान्त करने में सफल होते हैं।

(ङ) निर्लोभ - 

        राम को किसी प्रकार का कोई लोभ नहीं है। वे अयोध्या के राजसिंहासन के उत्तराधिकारी हैं, किन्तु माता कैकेयी उनसे यह अधिकार छीनकर भरत को दे देती है और उन्हें चौदह वर्षों के वनवास की आज्ञा सुनाती है। राम चुपचाप बिना किसी विरोध के वन चले जाते हैं, यद्यपि लक्ष्मण इसका प्रबल विरोध करते हैं, फिर भी वे लक्ष्मण को शान्त करते हैं और कैकेयी के इस कृत्य को भी कल्याणकारी ही मानते हैं। 

इस प्रकार राम धीर-गम्भीर, मर्मज्ञ, मातृ-पितृभक्त, भ्रातृस्नेही, विनयशील और निर्लोभ चरित्र के नायक हैं।

लक्ष्मणस्य चारित्रिक-वैशिष्ट्यम्

        लक्ष्मण 'प्रतिमानाटकम्' से सङ्कलित इस नाट्यांश में सहनायक के रूप में चित्रित हैं। उनका चरित्र राम के चरित्र से सर्वथा भिन्न प्रकार का है। उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं-

(क) उग्र स्वभाव-

        लक्ष्मण का स्वभाव अत्यन्त उम्र है। जब उन्हें राम के राज्याभिषेक को रोके जाने और उनके वनवास का पता चलता है तो वे स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाते और माता कैकेयी को ही दण्ड देने के लिए धनुष उठा लेते हैं। उनका रोष यहीं शान्त नहीं होता, वरन् वे राम को भी ऐसा ही करने के लिए प्रेरित करते हैं और स्वयं पृथ्वी को युवतिरहित करने का निश्चय भी राम से व्यक्त करते हैं। यह उनकी उग्रता की पराकाष्ठा है। उनके स्वभाव की इस उग्रता से स्वयं राम भी परिचित हैं, जिसको वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-

अक्षोभ्यः क्षोभितः केन लक्ष्मणो धैर्यसागरः ।

 येन रुष्टेन पश्यामि शताकीर्णमिवाग्रतः ॥

(ख) परमवीर-

        लक्ष्मण स्वभाव से उग्र तो हैं ही, इसके साथ ही उनमें अपने क्रोध को परिणाम की परिणति तक पहुँचाने की सामर्थ्य भी है। इसलिए उनको क्रोधित देख राम और सीता दोनों ही चिन्तित हैं; क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि लक्ष्मण के सामने सैकड़ों वीर भी तुच्छ हैं, उनके क्रोध और वीरता की सामर्थ्य को जानने के कारण ही राम चिन्तित हैं कि तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर देनेवाली लक्ष्मण की भृकुटि भाग्यरेखा के समान निश्चित परिणामवाली है-

त्रैलोक्यं दग्धुकामेव ललाटपुटसंस्थिता । 

भृकुटिर्लक्ष्मणस्यैषा नियतीव व्यवस्थिता ॥

(ग) धैर्यसागर -

        प्रस्तुत नाट्यांश में यद्यपि लक्ष्मण को उम्र रूप में ही चित्रित किया गया है, किन्तु राम ने उनको धैर्यसागर कहकर उनकी धीरता का परिचय दिया है-

'अक्षोभ्यः क्षोभितः केन लक्ष्मणो धैर्यसागरः ।'

(घ) अविवेकी -

        उग्रता और अविवेक दोनों गुण एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ एक है, वहाँ दूसरा होता ही है। लक्ष्मण उग्र स्वभाव के वीर व्यक्ति हैं, इसलिए उनमें अविवेक भी दृष्टिगत होता है। अविवेकी होने के कारण ही वे अपनी माता कैकेयी के प्रति ही धनुष उठा लेते हैं। उनका अविवेक केवल कैकेयी तक ही सीमित नहीं है, वरन वे उसके कृत्य की सजा सम्पूर्ण स्त्री समाज को देना चाहते हैं, तभी तो वे सम्पूर्ण पृथ्वी को युवतीरहित करने का निश्चय व्यक्त करते हैं-

अथ न रुचितं मुञ्च त्वं मामहं कृतनिश्चयो

 युवतिरहितं लोकं कर्तुं यतश्छलिता वयम्॥

(ङ) भ्रातृभक्त - 

        लक्ष्मण के व्यक्तित्व में रोम-रोम में भ्रातृभक्ति कूट-कूटकर भरी है। वे अपने भाई राम के लिए माता कैकेयी तक के विरुद्ध धनुष उठा लेते हैं। वे अपने रहते भाई राम को किसी संकट में पड़ा नहीं देख सकते, यही कारण है कि चौदह वर्षों तक उनके वनवास की बात उनके मन को उद्वेलित कर देती है, इसी कारण वे पृथ्वी को युवतिरहित करने का निश्चय कर चुके हैं; क्योंकि युवती (कैकेयी) के कारण ही उनके भाई राम को वन जाना पड़ रहा है। स्वयं राम के समझाने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं होता। जब राम ही उन्हें उपालम्भ देते हैं तो वे अपने मन की व्यथा को इन शब्दों में व्यक्त कर देते हैं-

यत्कृते महति क्लेशे राज्ये मे न मनोरथः।

वर्षाणि किल वस्तव्यं चतुर्दश वने त्वया ॥

        लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति एकपक्षीय नहीं है। लक्ष्मण राम को जितना स्नेह करते हैं, राम भी लक्ष्मण को उतना ही स्नेह करते हैं और उससे भी अधिक उन पर विश्वास करते हैं। इसी विश्वास के कारण राम लक्ष्मण से सीताजी को वन जाने से रोकने का आग्रह करते हैं - "लक्ष्मण ! वार्यतामियम्।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि लक्ष्मण में सभी क्षत्रियोचित गुण विद्यमान हैं।


6. पाठात् चित्वा अव्ययपदानि लिखत - उदाहरणानि ननु तत्र.................। 

उत्तरम् - 

    इति, अथ, कुतः, हन्त !, न, तत्र, हि, अत्र, कथम्, च, अलम्, एव, खलु तावत्, अपि, यदि, अतः, परम्, ततः, तदानीम्, मा, पुरतः, एवम्, यतः, इदानीम्, आः, वा, समम्, इव, इतः, हा, धिक्, यत्, किल, तत्।

7. अधोलिखितेषु पदेषु प्रकृति-प्रत्ययौ पृथक् कृत्वा लिखत-

  परित्रातव्याः, वक्तव्यम्, रक्षितव्या, भवितव्यम्, पुत्रवती, श्रोतुम्, विसर्जितः, गतः, क्षोभितः, धारयितुम्।

उत्तरम् - 

    पदानि

    प्रकृति-प्रत्यय

    परित्रातव्यः

    परि + त्रस् + तव्यत्

    वक्तव्यम्

    वच् + तव्यत्

    रक्षितव्या

    रक्ष + तव्यत्

    भवितव्यम्

    भू + तव्यत्

    पुत्रवती

    पुत्र + वतुप्

    श्रोतुम्

    श्रु + तुमुन् 

    विसर्जितः

    वि+ सृज् + क्त

    गतः

    गम् + क्त

    क्षोभितः

    क्षुभ् + क्त

    धारयितुम्

    धृ + तुमुन्





8. अधोलिखितानां पदानां संस्कृत - वाक्येषु प्रयोगः करणीयः- 

शरीरे, प्रहरति, भर्ता, अभिषेकः,  पार्थिवस्य,  प्रजानाम्,  हस्तेन, धैर्यसागरः, पश्यामि, करेणु, गन्तव्यम्।

उत्तरम्- 

    पदम्     

       संस्कृत-प्रयोगः

    शरीरे

    शरीरे बहूनि अङ्गानि सन्ति।

    प्रहरति

    व्याधः क्षुरिकया प्रहरति

    भर्ता

    ईश्वर: संसारस्य एकैव भर्ता अस्ति।

    अभिषेक:

    पित्रा पुत्रस्य अभिषेकः क्रियते।

    पार्थिवस्य

    समुद्रपर्यन्तं पार्थिवस्य राज्यः आसीत्।

    प्रजानाम्

    राजा प्रजानाम् रक्षकः भवति ।

    हस्तेन

    माता हस्तेन पुत्रं ताडयति ।

    धैर्यसागर

    युधिष्ठिरः धैर्यसागरः आसीत्।

    पश्यामि

    अहम् चलचित्रं पश्यामि

    करेणुः

    करेणुः सरोवरे निमज्जति।

    गन्तव्यम्

    या नगरं न गन्तव्यम् 






9. अधोलिखितानां स्वभाषया भावार्थ लिखत-
 

(क) शरीरेऽरिः प्रहरति हृदये स्वजनस्तथा ।

उत्तरम् - 

        शत्रु व्यक्ति के शरीर पर प्रहार करता है, जिसकी रक्षा विभिन्न उपायों द्वारा की जा संकती है। शत्रु से दूर रहकर, उसके प्रहारों को निष्फल करके, उसके अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट करके, उससे सावधान रहकर अथवा उसका प्रहार से पूर्व ही विनाश करके शत्रु से स्वयं को बचाया जा सकता है, किन्तु जो अपने लोग, परिजन, मित्र, भाई- बान्धव होते हैं, वे सदैव व्यक्ति की भावनाओं को आहत कर उसके हृदय पर प्रहार करते हैं। शत्रु द्वारा किए गए प्रहार से शरीर पर जो आघात लगता है, उसकी चिकित्सा की जा सकती है, किन्तु आत्मीयजनों द्वारा हृदय पर जो आघात किया जाता है, उसकी कोई चिकित्सा नहीं है। उसके हृदय के ये आघात उसे जीवनभर पीड़ा पहुंचाते हैं, उसकी आत्मा को कचौटते हैं, कुरेदते हैं और उसे भयंकर पीड़ा पहुँचाते हैं। इस प्रकार शत्रु के शारीरिक  प्रहार से आत्मीयजनों का हृदय पर किया गया प्रहार अधिक घातक होता है। फिर शत्रु के ज्ञात होने पर व्यक्ति उससे सावधान रहता है और उसके हमलों एवं अस्त्रों-शस्त्रों के आकार-प्रकार एवं समय आदि का भी ज्ञान होने से वह उसके प्रतीकार के उपाय पहले से करके रखता है, किन्तु आत्मीयजनों से वह सावधान भी नहीं रह सकता; क्योंकि उनके आघातों के विषय में वह बिल्कुल अनजान होता है। कौन आत्मीयजन कब, कहाँ से और कैसे प्रहार कर दे, इसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं होता और वह उसके घातक प्रहारों से बच नहीं पाता। इसलिए व्यक्ति को शत्रु से अधिक आत्मीयजनों से सावधान रहना चाहिए। 

(ख) नवनृपतिविमर्शो नास्ति शङ्का प्रजानाम्। 

उत्तरम् - 

जब भी किसी राज्य में कोई नया राजा बनता है तो उसको लेकर वहाँ की प्रजा के मन में अनेक प्रकार की होती है कि पता नहीं यह राजा कैसा होगा। वह प्रजा का रक्षक होगा अथवा भक्षका प्रजा की इन्हीं शङ्काओं की ओर सङ्केत करते हुए राम काञ्चुकीय से कहते हैं कि कैकेयी के द्वारा जो मेरा राज्याभिषेक रोका गया है, उसमें भी महान् लोकहित की भावना छिपी है। इसमें सबसे बड़ा लोकहित तो यही है कि अब महाराज दशरथ हो अयोध्या के राजा बने रहेंगे। उनके स्वभाव और कार्यों से प्रजा पहले ही परिचित है। अतः उसके मन में अब राजा को लेकर किसी प्रकार की कोई भी शंका न रहेगी और वह चिन्तामुक्त होकर सानन्द जीवन व्यतीत करेगी।

(ग) यदि न सहसे राज्ञो मोहं धनुः स्पृश मा दयाम्।

 उत्तरम् -

        राम के वनवास की बात से महाराज दशरथ इतने आहत होते हैं कि वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाते है। अपने राजा को इस दयनीय अवस्था से प्रजा से लेकर परिजन तक सभी व्यथित है। राम और लक्ष्मण भी इससे आहत है। लक्ष्मण सर्वाधिक व्यथित है, इसलिए वे उन सभी लोगों का कैकेयी का विरोध करने का आह्वान करते हैं। वे कहते हैं कि यदि आप लोग राजा के इस प्रकार मूर्च्छित होने की बात को सहन नहीं कर पा रहे हैं तो धनुष-बाण उठाइए और इसका प्रतीकार कीजिए। इस विषय में किसी प्रकार की दया दिखाने की आवश्यकता नहीं है। भले ही वह महारानी कैकेयी ही क्यों न हो। इस विषय में महारानी के पद और स्त्री के होने की बात को बिल्कुल भी ध्यान में न रखा जाए क्योंकि महारानी अथवा स्त्री यदि राजा के प्रति अपराध करें तो उन पर प्रहार करना धर्म और नीति के अनुकूल ही है। इस स्थिति में इन पर शस्त्र उठाना निन्दनीय कार्य नहीं है।

(घ) यत्कृते महति क्लेशे राज्ये मे न मनोरथः ।

उत्तरम् - 

         राम को राज्याभिषेक से वञ्चित किए जाने तथा उन्हें वनवास की आज्ञा दिए जाने से लक्ष्मण अत्यधिक व्यथित और क्रोधित है। राम उन्हें समझाने का प्रयास करते हुए कहते है कि यदि मेरे अभिषेक न किए जाने से तुम्हें इतना दुःख और क्रोध है तो बताओ मैं इसकी शान्ति के लिए पिता, माता अथवा भाई भरत में से किसका संहार करूं। इस पर लक्ष्मण कहते हैं कि आप मुझे गलत समझ रहे हैं जो राज्य अत्यधिक दुःखों का कारण है, जिसके लिए स्वजनों द्वारा इस प्रकार के षड्यन्त्र किए जा रहे है, उस राज्य की मुझे बिल्कुल भी अभिलाषा नहीं है और न ही आपको राज्य से वञ्चित कर दिए जाने की बात मुझे व्यथित कर रही है। मेरी व्यथा का एकमात्र कारण यही है कि आपको चौदह वर्षों तक वन में रहना पड़ेगा। राजा भले ही कोई भी बन जाए, किन्तु आप वन के कठिन जीवन के कष्ट उठाएँ, यह मुझसे सहन नहीं हो पा रहा है और यही मेरे क्रोध और पीड़ा का कारण है।


10. अधोलिखितेषु सन्धिच्छेदः कार्य:- 

रक्षितव्येति, गुणेनात्र, शरीरेऽरिः, स्वजनस्तथा, येनाकार्यम्, खल्वस्मत्, किमप्यभिमतम्,  हस्तेनैव, दग्धुकामेव।

उत्तरम् - 

    पदम्

    सन्धिच्छेदः

    रक्षितव्येति

    रक्षितव्या + इति 

    गुणेनात्र

    गुणेन + अत्र

    शरीरेऽरिः

    शरीरे + अरि:

    स्वजनस्तथा

    स्वजन: + तथा

    येनाकार्यम्

    येन + अकार्यम्

    खल्वस्मत्

    खलु + अस्मत्

    किमप्यभिमतम्

    किम् + अपि + अभिमतम्

    हस्तेनैव

    हस्तेन + एव

    दग्धुकामेव

    दग्धुकाम् + एव

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Class -12 Sanskrit Bhaswati - Lesson - 3 Maturagya gariyashi Question Answer

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